क्या ऐसा हो सकता है कि कई सारी अज्ञात शक्तियां, देसी और विदेशी, एक पार्टी के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदती हैं, वह पार्टी उस बान्ड के पैसे से कुछ प्रभावशाली लोगों को ख़रीद लेती है और वो लोग उन वोटरों को जो दो से तीन हज़ार के नोट के लिए वोट बेचने के लिए तैयार बैठे हैं। इस कड़ी में अमीर से लेकर ग़रीब तक अपना वोट बेच रहा है और दूसरे का ख़रीद रहा है।
यह पहले भी होता रहा है और यह आज भी हो रहा है। बस अब पैसा किसका है यह कभी नहीं जाना जा सकेगा। क्योंकि इलेक्टोरल बॉन्ड कौन ख़रीद रहा है, नहीं जान सकेंगे। यह पैसा किस पार्टी को गया है यह भी मुश्किल से जाना जा सकेगा। आप कुछ भी नहीं जान सकेंगे फिर भी इस कानून को चुनाव सुधार की दिशा में पारदर्शी कदम बताते रहेंगे।
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24 मई 2019 को स्टेट बैंक आफ इंडिया की अधिकृत शाखाओं से 822 करोड़ के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे गए। इसमें से 370 करोड़ का बान्ड कोलकाता के मेन ब्रांच से ख़रीदा गया। शेष भारत में 451 करोड़ का बान्ड खरीदा गया जबकि अकेले कोलकाता में 370 करोड़ का। करीब 45 परसेंट बान्ड कोलकाता के एक ब्रांच से ख़रीदा गया। ख़रीदने वाले कोलकाता के थे या बाहर के अगर यह कानून बता सकता तो इस वक्त लोकतंत्र के अंदरखाने में हो रहे भीतरघात का काफी कुछ पता चल सकता था। अब कोई फायदा नहीं है।
टेलिग्राफ अखबार ने पुणे के आर टी आई कार्यकर्ता विहार धुर्वे को मिली जानकारी के आधार पर यह ख़बर छापी है। कोलकाता स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के ब्रांच से देश में सबसे अधिक बान्ड ख़रीदे गए। ज़्यादातर बॉन्ड एक-एक करोड़ के ख़रीदे गए। 1 करोड़ के 353 बॉन्ड खरीदे गए हैं। एक ह़ज़ार, दस हज़ार और एक लाख के बान्ड पर मात्र 4.29 लाख का निवेश हुआ। ख़रीदने के 15 दिनों के अंदर बॉन्ड को कैश करा लेना होता है। 822 करोड़ के बान्ड 10 लाख से लेकर 1 करोड़ तक के थे। जनवरी से लेकर मई तक 4,974 करोड़ के बॉन्ड ख़रीदे गए हैं।
टेलिग्राफ़ ने दूसरे दिन भी इस ख़बर का फोलोअप छापा है। इसके अनुसार मार्च 2018 से मई 2019 तक कोलकाता स्थित स्टेट बैंक की मुख्य शाखा से 1389 करोड़ के बान्ड ख़रीदे गए हैं। ज़ाहिर एक साल से बंगाल में बाहर से पैसा पहुँचाया जा रहा था।
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कल्पना कीजिए। राजनीति के पुराने किस्सों के घोड़ों को खोल दीजिए। 353 लोग हैं जो एक-एक करोड़ के बॉन्ड ख़रीद रहे हैं या फिर कोई अकेला ऐसा है जो 353 करोड़ एक-एक करोड़ के बान्ड ख़रीदने में लगा देता है। बंगाल में 42 लोकसभा की सीटें हैं। प्रति लोकसभा के हिसाब से 8 करोड़ 80 लाख होता है। लोकसभा में एक उम्मीदवार 70 लाख ही ख़र्च कर सकता है। कानून की तय सीमा से कहीं ज़्यादा पैसा बॉन्ड के रास्ते चुनावों में पहुंच रहा है।
क्या इस पैसे का इस्तमाल वोट ख़रीदने के लिए हुआ? चुनाव आयोग सड़कों पर बैरिकेड लगाकर पैसा पकड़ने का काम करता रहा, उधर पैसा कानून के बनाए चोर रास्तों से पहुंचता रहा। किसने पैसे लिए, किस पर ख़र्च किए गए? किस पार्टी का कौन बिका और किस मोहल्ले के कौन से लोग बिक गए? बग़ैर इन सवालों के जवाब के लोकसभा की जीत का कोई भी विश्लेषण अधूरा है। बेकार है।
मीडिया के ज़रिए जो ख़र्च हुआ वो तो बेहिसाब रह गया। हमने किसी भी विश्लेषण में जीत के पीछे इस तरह की अनैतिक शक्तियों के प्रयोग का सटीक वर्णन नहीं देखा। जब असली रणनीति की कहानी किसी को पता ही नहीं तो फिर उन्हें पढ़कर क्या हासिल होगा। मीडिया के रिपोर्टरों को पता ही नहीं होता है कि वोट कैसे मैनेज होता है। उसकी बिसात कैसे बिछती है। जिस जनता के भरोसे लोकतंत्र की लड़ाई लड़ी जाती है वो मतदान के पहले की रात अपने वोट का सौदा कर सकती है, यह सच्चाई कितनी भयावह है।
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वोट बिके होंगे इसका अनुमान लगाना असंभव तो नहीं है। भारत के चुनावों में शराब और मीट भात पर वोट बिकते रहे हैं। हर चुनाव की यही कहानी है। वोटों की ख़रीद बिक्री की पूरी एक पूरी चेन है। इसमें कोई भी बड़ा या छोटा नहीं है। हम कभी नहीं जान सकेंगे कि बंगाल में किसने कितना पैसा बहाया है। इलेक्टोरल बान्ड का पैसा पूरी तरह गुप्त पैसा है। पैसा पहुंचाने का इतना ठोस रास्ता पहले कभी नहीं था। जांच ज़रूरी है कि इलेक्टोरल बान्ड का पैसा किसने भुनाया, कहां जमा कराया और किस पर खर्च किया। ऐसी जांच की इच्छा शक्ति और नैतिक बल किसी अफसर में नहीं है। किसी संस्था में नहीं है।
चुनाव आयोग ने भी माना है कि इलेक्टोरल बान्ड पारदर्शी नहीं है। लेकिन आयोग की खुद की भी भूमिका संदिग्ध है। शक से परे नहीं है। यह साधारण ख़बर नहीं है। करीब पांच हज़ार करोड़ के बान्ड बिके हैं। इनमें से 80- 90 फीसदी से अधिक के बान्ड बीजेपी के हिस्से में बताए जा रहे हैं। इस सिलसिले में कई मीडिया रिपोर्ट मिल जाएगी। आप क्या करेंगे पढ़कर? बंगाल में एक ब्रांच से 370 करोड़ के इलेक्टोरल बॉन्ड की क्या कहानी हो सकती है? कोई जेम्स बान्ड ही बता सकता है। भारत में बॉन्ड युग आ गया है। सबकुछ बॉन्ड जानता है। बाकी सब उस बॉन्ड के बंधुआ हैं।
नोट- टेलिग्राफ की अनिता जोसुआ की रिपोर्ट है। हिन्दी अख़बार और हिन्दी चैनलों से सावधान रहिए। आपकी जागरूकता का सौदा हो चुका है। आप सिर्फ मीम और मेसेज फार्वर्ड करने वाले नागरिक हैं। अपनी नागरिकता निभाते रहिए।
रवीश कुमार
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