किसान आंदोलन के बीच एक अख़बार निकलने लगा है। इस अख़बार का नाम है ट्राली टाइम्स। पंजाबी और हिन्दी में है। जिन किसानों को लगा था कि अख़बारों और चैनलों में काम करने वाले पत्रकार उनके गाँव घरों के हैं, उन्हें अहसास हो गया कि यह धोखा था। गाँव घर से आए पत्रकार अब सरकार के हो चुके हैं।
किसान आंदोलन के बीच से अख़बार का निकलना भारतीय मीडिया के इतिहास का सबसे शर्मनाक दिन है। जिस मीडिया इतिहास अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ अख़बार निकाल कर संपादकों के जेल जाने का रहा हो उस मीडिया के सामने अगर किसानों को अख़बार निकालना पड़े तो यह शर्मसार करने वाली बात है।
जब मीडिया सरकार चुन ले तो जनता को अख़बार चलाना पड़ता है - रवीश कुमार
भारत का मीडिया नरेंद्र मोदी की चुनावी सफलताओं की आड़ लेकर झूठ बेचने का धंधा कर रहा है। वह सिर्फ़ किसान विरोधी नहीं है बल्कि हर उसके ख़िलाफ़ है जो जनता बन कर सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं।
ट्राली टाइम्स का आना एक तरह से सुखद है। जनता के उस विश्वास के बने रहने का सूचक है कि अख़बार भले बिक गए हों, अख़बारों का महत्व है। सूचनाओं की पवित्रता ज़रूरी है।
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पत्रकारिता में जनता का विश्वास एक दिन नए अख़बारों और चैनलों को जन्म देगा। मौजूदा अख़बारों और चैनलों से लड़े बग़ैर भारत में लोकतंत्र की कोई लड़ाई जीती नहीं जा सकती। इसमें कोई शक नहीं कि गोदी मीडिया लोकतंत्र का हत्यारा है। दुख की बात है कि जनता का हत्यारा जनता के पैसे ही चलता है।
जनता को अगर अपने इस सुंदर लोकतंत्र को बचाना है तो उसे गोदी मीडिया नाम के हत्यारे से लड़ना ही होगा। यह उसके स्वाभिमान का सवाल है। सही सूचना जनता का स्वाभिमान है। भारत का गोदी मीडिया आपके जनता होने का अपमान है। आख़िर आपने इस दलाल मीडिया को अपने जीवन का क़ीमती वक्त और मेहनत का पैसा दिया ही क्यों? ये सवाल आपसे भी है। आज न कल आपको अपने घरों से इन अख़बारों और चैनलों को बाहर निकाल फेंकना ही होगा।
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